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भोपाल में तोपों से होता था चांद का ऐलान, रातभर खुली रहती थी चाट गली, इस बार टूट गईं कई परंपराएं

रमजान के मौके पर भोपाल की गलियों को भले ही इस बार लॉकडाउन ने सूना कर दिया हो, लेकिन लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई है। लोग मस्जिदों में नहीं जा पा रहे लेकिन घरों में इबादत में लगे हैं। नवाबों के दौर से ही भोपाल में रमजान की एक अलग रवायत रही है। चाहे खाना-पीना हो या तोपों से चांद का ऐलान करने की परंपरा रही हो। चाहे चाट गली के स्वादिष्ट व्यंजन हों या चौक बाजार की रौनक। भोपाल की अपनी एक अलग पहचान है।

जो बाजार रातभर गुलजार होते थे, वो सूने पड़े हैं
रमजान पर लखेरापुरा, इब्राहिमपुरा, चौक बाजार, लोहा बाजार, आजाद मार्केट देर रात तक गुलजार हुआ करते थे। खाने-पीने के साथ ही कपड़ा, ज्वेलरी, जूते-चप्पल, सजावट का सामान, इलेक्ट्रॉनिक आयटम के साथ ही वाहनों की भी जमकर खरीदी हुआ करती थी, लेकिन अभी सब ठंडा है। किराना व्यापारी महासंघ, भोपाल के महासचिव अनुपम अग्रवाल कहते हैं कि, 20 से 25 करोड़ की ग्राहकी तो प्रभावित हुई है, लेकिन यह नुकसान नहीं है क्योंकि ग्राहक का पैसा ग्राहक के पास है और व्यापारी का माल व्यापारी के पास है। 3 मई के बाद छूट मिलती है तो अच्छी ग्राहकी हो सकती है। किराना का तो पूरा सामान सप्लाई किया ही जा रहा है।

वे कहते हैं कि, ईद के एक दिन पहले चांद रात में भी शहर में जमकर खरीदी होती है। भोपाल में तो यह परंपरा भी रही है कि चांद रात के दिन कोई व्यापारी किसी ग्राहक को वापिस नहीं लौटाता। मुनाफा न कमाकर या थोड़ा बहुत नुकसान उठाकर भी माल दे देता है। ऐसा मुस्लिम और हिंदू दोनों व्यापारी ही सालों से करते आ रहे हैं।

फोटो भोपाल के जहांगीराबाद का है। इफ्तारी के चलते प्रशासन ने कुछ समय शाम को दुकानों को छूट दी है।

फतेहगढ़ किले के बुर्ज पर रखी तोप से होता था ऐलान
एनसीईआरटी के डिपार्टमेंट ऑफ लैंग्वेज में प्रोफेसर रहे मोहम्मद नौमान खान
कहते हैं कि, कई ऐसी बातें हैं, जो भोपाल को एक विशेष पहचान देती हैं। 'यहां नवाबों के दौर में फतेहगढ़ किले के बुर्ज पर रखी तोप चलाकर चांद के दिखने का ऐलान किया जाता था। सहरी और इफ्तार के वक्त भी तोप चलती थी। उस समय तोप की आवाज मंडीदीप से बैरसिया तक गूंजती थी, क्योंकि तब न शहर में वाहनों की आवाजों का इतना शोर नहीं था, जितना आज है।

यह काम सरकारी बजट से ही होता था और रियासत ही इसका पूरा प्रबंध करती थी। बाद में यह सिलसिला बंद हो गया और फिर जगह-जगह गोले छोड़कर ऐलान किया जाने लगा।' प्रोफेसर कॉलोनी में रहने वाले फैजल मोहम्मद खान बताते हैं कि, नवाबी दौर में तो सुबह 4 बजे के करीब आदमी आकर आवाज लगाते थे कि सहरी कर लीजिए। जो आवाज देने आता था, उसे ईनाम भी दिया जाता था। अब तो यह परंपरा चली गई क्योंकि पटाखों के जरिए आवाज तो अभी भी की जाती है।

गौहर महल के पास स्थित नवाब कालीनसीढ़ी घाट वाली मस्जिदमें कोरोनावायरस संक्रमण के डर से जनामाज

(जिस पर बैठकर नमाजी की जाती है) कोभी बाहर धूप में सुखाया जा रहा है, ताकि वायरस हो तो खत्म हो जाए। फोटो : शान बहादुर

दिन में दुकानें नहीं खुला करती थींस
प्रोफेसर नौमान के मुताबिक, 'नवाबी दौर में शहर में रमजान के दौरान दिन में दुकानें नहीं खुला करती थीं, ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि रोजा रखने वालों का कहीं ध्यान न भटके। खाने-पीने का मन में लालच न आए। पकवानों के पकने की खुशबू न आए। तब दुकानों पर दोपहर में पकवानों की तैयारी शुरू होती थी और शाम के समय इन्हें पकाया जाता था। इफ्तारी के बाद लोग दुकानों पर खाने-पीने पहुंचते थे। अब भी बाजार में इफ्तारी के बाद रौनक होती है, लेकिन अब दुकानें दिन में भी खुली रहती हैं। हालांकि कुछ दिनों पर परदा डाल दिया जाता है, जिसे शाम को हटाया जाता है।

नुक्ती और खारे के मिक्सचर के लिए भोपाल पुराने समय से जाना जाता है। नुक्ती और खारे सालभर नहीं मिलते थे, लेकिन रजमान के महीने में जगह-जगह नुक्ती और खारे की दुकानें आज भी लगी देखी जा सकती हैं। इसमें हरी, लाल, पीली नुक्ती और सेंव मिलाए जाते हैं। नुक्ती-खारे खाने का कल्चर भोपाल से ही फैला है। यह स्वादिष्ट होने के साथ ही स्वास्थ्य के लिए भी ठीक होते हैं। इनसे नमक और मीठा दोनों ही शरीर को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में मिल जाते हैं। शबीना भी भोपाल के कल्चर का हिस्सा रही है। इसमें रात भर खुद की इबादत की जाती है। बड़े परिवारों में इसका आयोजन किया जाता था। सेहरी के पहले तक कुरान का पाठ चलता था। लोग खाते-पीते थे। कुरान सुनते थे। चाय-नाश्ता चलता था। इसमें तीन से चार दिन या हफ्तेभर में कुरान का पाठ पूरा कर लिया जाता था। शबीना भोपाल का खास ट्रेडीशन रहा है। कुछ मस्जिदों में भी इसका आयोजन किया जाता था।

भोपाल में सामूहिक रोजा इफ्तार की परंपरा करीब 60 साल पुरानी है। इस बार शहरकाजी ने घर पर हीइबादत करने की अपील की है।

सफेद रंग से सजा होता था शहर
नवाबी रवायतोंकी गहरी समझ रखने वाले आर्किटेक्ट एसएम हुसैन कहते हैं कि, रमजान शुरू होते है पूरे भोपाल में रौनक आ जाया करती थी। पुराने समय में सरकारी बिल्डिंगों से लेकर घरों तक को चूने से पुतवाया जाता था। हर जगह सफेद रंग दिखता था, क्योंकि यह पैगंबर साहब का पसंदीदा रंग है। हर मस्जिद में तरावीह की जाती थी।

जिस दिन कुरान शरीफ का पाठ पूरा होता था, उस दिन मस्जिदों में डेकोरेशन भी होता था। बिजली नहीं आने के पहले रोशनी के जरिए यह किया जाता था, बाद में लाइटें लगने लगीं। चिरागदानों से रोशनी की जाती थी। इसमें सरकार की तरफ से तेल भरवाया जाता था।

इस बार इफ्तार में भी बाहर के लोगों को नहीं बुलाया जा रहा। घर परिवार के लोग इफ्तार कर रहे हैं।

इस बार शॉपिंग नहीं कर पा रहे
मोहम्मद नसीम बताते हैं, जिस गंगा जमुनी तहजीब की बात देशभर में की जाती है, भोपाल पुराने समय से ही इसका गवाह रहा है। रमजान माह में जामा मस्जिद के बाहर तक नमाजी नमाज पढ़ा करते थे, तब हिंदू कपड़ा व्यापारी थान में नया कपड़ा निकालकर नमाजियों को बैठने के लिए दे दिया करते थे। यह भाईचारा भोपाल में ही देखने को मिला करता था।

चौक बाजार में शीर खुरमा, सेवइयां, शीरमाल आदि व्यंजन खाने बड़ी संख्या में मुस्लिम लोग जाया करते थे। शहर में सामूहिक इफ्तारी का कल्चर भी पुराने समय से रहा है। रात में बाजार गुलजार होते हैं। चटोरी गली रातभर खुलती है। तरावीह पढ़ने के बाद लोग वहां जाकर स्वादिष्ट व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं। कपड़े, जूतों, ज्वेलरी की दुकानें रात में खुलती हैं और दिन में बंद हुआ करती हैं। लोग रात में शॉपिंग करते हैं। पूरा बाजार रात में गुलजार होता है। खाने-पीने और शॉपिंग का यह कल्चर अभी भी जिंदा है, इस बार बस लॉकडाउन ने रमजान का रंग फीका कर दिया है।

इस बार टूट गईं कई परंपराएं

  • प्रो. नौमान कहते हैं कि, इस बार कई परंपराएं लॉकडाउन की वजह से टूट गईं। पहली बार मस्जिदों में नमाज नहीं हो रही। पहली बार तरावीह मस्जिदों में नहीं हो रही। हाफिज सामूहिक तौर पर मस्जिदों में तरावीह करवाया करते थे, लेकिन इस बार सबको घर पर ही करना है।
  • जुमे की नमाज भी शायद पहली दफा मस्जिदों में नहीं हो पा रही। जुमे की नमाज घरों में नहीं पढ़ी जा सकती।
  • प्रो. नौमान के मुताबिक, 18वीं सदी में भी प्लेग महामारी के चलते इस तरह की दिक्कतें आईं थीं। तब के बाद अब 2020 में ऐसे हालात बने हैं, जब सब बंद हो गया है।
  • इस बार इफ्तार पार्टीकी परंपरा भी टूट गई क्योंकि लोग एक-दूसरे से मिल ही नहीं सकते। न शॉपिंग, न खाना-पीना। हालांकि वे कहते हैं कि, यह सब कदम हमारी जिंदगी बचाने के लिए उठाए गए हैं, जिंदगी होगी तो ये सब फिर शुरू हो जाएगा।


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Cannons were announced by cannons in Bhopal, Chaat Gali used to remain open overnight, many traditions broken this time


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